Emotions, Poems

घर और मैं

आज जब निकली घर से, तो घर से कहा अपना ध्यान रखना,
अपनी ही दीवारों पर अपने कान रखना |
शाम को आऊँगी तो सम्भाल लूँगी तुझे,
और तू मुझ पर सुकून भरी मुस्कान रखना ||

दिन भर की भागा दौड़ी में कभी तू दिमाग़ से निकल जाता है,
फिर थोड़ी देर में साफ़ सुथरा आँगन याद आ जाता है |
बहुत उलझाए रखता है तू मुझे अपनी देखरेख में,
और सच बोलूँ तो उलझने में मुझे भी मज़ा आता है ||

आँगन सँवारने बैठी तो कर्मपथ दूर हो ग़या,
और इसी के साथ ऊपर उड़ने का दम्भ चूर हो गया ||
जो चलने लगी अपने रास्ते,
जो आयी हूँ, वही करने के वास्ते ,
निकली जो घर से हर कमरा अकेला हो गया |
और मेरे घर लौटने से पहले मेरा “नन्हा” सो गया ॥

समझ नहीं आता एक इंसान को दो राहे क्यों मिली,
जब ज़िंदगी है एक तो अनेक चाहे क्यों मिली |
जानती हूँ ,संतुलन बैठाना ही जीवन की कला है,
इस कला को निखारने यह मानव मन, जाने कहाँ तक उड़ चला है। | |

उस उड़ान के बाद याद आए जो वही मेरा घरोंदा है,
रोते हंसते हारते जीतते हर पल जिसने मुझे देखा है ,
हर सफ़र मेरा तुझसे ही शुरू होता है |
मैं ही तुझमें नहीं मेरे घर,
तू भी मुझ में रहता है ॥

5 thoughts on “घर और मैं”

  1. बहुत अच्छा लिखा है … संतुलन बनाना महिलाओं से अधिक और कौन जनता है

    Like

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s