अर्क-ए-इश्क़ कुछ यूँ दिख रहा था..
चौदहवीं की रात चाँद का रूप जो बिखर रहा था,
शबनम तले अल-सुबह एक पल्लव निखर रहा था..
अर्क-ए-इश्क़ कुछ यूँ दिख रहा था…
ठंडक थी वो ऊंचाइयों वाली हिम् की तरह,
बैचैन थी वो, कभी मेरी कभी तुम्हारी तरह,
नदी सी मैं ,पर्वतो में गुम जिस तरह…
अर्क-ए-इश्क़ कुछ यूँ दिख रहा था….
महकती हुई मीठी सी चाशनी सा ,
दिल में उतर जाए ऐसी रागिनी सा,
मद्धिम उजाले वाली सफेद चाँदनी सा …
अर्क-ए-इश्क़ कुछ यूँ दिख रहा था..
बारिशो के शोर में एक प्याली चाय सा,
फ़िक्रमंद होते तुम और तुम्हारी उस राय सा,
मेरे नज़रे उठाने पर खुद नज़र झुकाये सा…
अर्क-ए-इश्क़ कुछ यूँ दिख रहा था…
Beautiful poetry 💖
LikeLike
वाह वाह वाह क्या बात
LikeLike