जवाब-ए-दस्तक़ हमेशा दस्तक़ नहीं होती,
दरवाज़ा भी कैसे खोले, कोई आहट जब तक नहीं होती,
यूँ तो खुला ही था दरवाज़ा भी, दोनों ओर दोनों खड़े थे
इस इंतज़ार में कि उधर से पहल कब तक नहीं होती।
उसने भी कुछ नहीं कहा इस सोच में,
शायद कुछ ना होगा उसके दिल में
वरना इतनी देर अब तक नहीं होती।
इसने भी सोचा चाहे कितना भी क़रीब क्यूँ न हो ,
दूर ही है वो जब तक दिलों की दूरियां कम नहीं होती।
एक दीवार का ही फासला था दोनों में,
मिल जाते अगर, वह दीवार क़रीब नहीं होती।।